वर्ण व्यस्था और वैदिक साहित्य
वैदिक साहित्यों में जिस जाति/वर्ण की व्यवस्था की गयी है उसके के बारे में अक्सर लोग आरोप प्रत्यारोप किया करते हैं अर्थ का अनर्थ निकाला करते हैं
यहाँ पर हम जाति/वर्ण के बारे में चर्चा करेंगे और प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर लोगों में व्याप्त विभिन्न प्रकार के विकारों को मुक्त करने का प्रयास करेंगे।
वर्ण व्यस्था -
वैदिक साहित्य के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों में सम्पूर्ण समाज को विभक्त कर दिया गया था एवं उक्त चारों वर्णों को कार्यों के आधार पर विभाजित किया गया था ।क्यों की चारों वर्णों के प्रत्येक मनुष्य यदि अलग-अलग कार्य को करते हैं तो सारे कार्य सुचारू रूप से संपन्न हो जाते है।अर्थात एक व्यक्ति एक प्रकार का कार्य पूरा मन लगाकर करता है, तो उसमें कुशलता और विशेषज्ञता मिल जाती है वरन बार- बार कार्य को बदलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता, और न ही कार्य सम्पूर्ण हो पाता ।
अतः वेदों में चारों वर्णों के कर्मों का पृथक−पृथक वर्णन किया है-
''ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धाराय'' (यजुर्वेद ३८- १४)
अर्थात् ''हमारे हित के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को धारण करो ।''
''उस विराट पुरुष (ईश्वर) के ब्राह्मण मुख हैं, क्षत्रिय भुजाएँ हैं, वैश्य उरु हैं और शुद्र पैर हैं ।''
(यजुर्वेद ३१- ११)
कई बार मनुस्मृति पर भी लोग आक्षेप लगाया करते हैं
यहाँ मनुस्मृति में वर्ण भेद पर कहे गए वचनों को बतौर उदहारण प्रस्तुत करता हूँ।
शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।
अर्थात- गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन
जाता है और शूद्र ब्राह्मण। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं। (मनुस्मृति 10:65)
''विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठतम क्षत्रियाणं तु वीर्यतः ।''
अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से परंतु यहाँ किसी कुल जाती का वर्णन नहीं है (कर्म के अनुसार)
उपर्युक्त व्यस्था कर्म के आधार पर आधारित थी अर्थात एक पिता की चार संताने ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र हो सकती थीं।जिसका उल्लेख "श्रीमदभगवतगीता" में इस प्रकार किया गया हैः-
''चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां गुणकर्मविभागशः ।''
अर्थात-मैंने गुण, कर्म के भेद से चारों वर्ण बनाये ।''
इस प्रकार गुण कर्म के अनुसार हमारे यहाँ वर्णों का विधान है ।
ब्राह्मण -जो अपनी विद्या, विवेक,और ज्ञान से समाज में व्याप्त अज्ञान के अन्धकार को दूर करने का कार्य करे जिससे स्वच्छ समाज की स्थापना हो सके।
क्षत्रिय- जो कमजोरी दुर्बलता को दूर करे तथा स्वच्छ समाज की रक्षा कर सके ।
वैश्य- जो देश देशान्तर तक व्यापार करके राष्ट्र को सुदृढ़ बना सके ।
शूद्र - शूद्रों में भी दो वर्ण हैं।
1-छूत
2-अछूत
छूत शूद्र- जो अपनी जरूरतों को पूर्ण करने के लिए खेती,जानवर पालन,गृह उद्योग करने वाले आदि लोग।
अछूत शूद्र- कुछ लोग जो कसाई, खटीक, चर्मकार (चमडा उद्योग) हरिजन, डोम (नाले कि सफाई करने वाले) इत्यादि को अछूत शूद्र में रखा गया ।
(इस प्रकार शिद्ध होता है वैदिक साहित्य में कर्म के आधार पर वर्ण भेद बनाया गया )
हमारा राष्ट्र हमेसा से कर्म प्रधान रहा है वैदिक साहित्य में जाति वर्ण के विभाजन का मुख्य उद्देश्य मुख्य रूप से इसलिए किया गया ताकि जो व्यक्ति जिस कार्य में निपुड़ हो वह वैसा ही कार्य करें, वैसी जाति में शामिल समझा जाये ।
दिन पर्यन्त इस व्यस्था का अंत हो गया हमारे राष्ट्र में अनेक उपजातियां बन गयीं समाज संकुचित होता गया मानसिकता संकीर्ण होती गयी इस संकुचित दायरे के भीतर ही विवाह होने लगे फलतः भारतवर्ष की सांस्कृतिक एकता नष्ट हो गई ।
धीरे-धीरे कर्म प्रधान देश रूढ़वादित से घिरता गया और जन्म प्रधान सा हो गया हालाँकि कहने के लिए आज भी कर्म प्रधान देश है लेकिन सत्यता यही है जो सबको स्वीकारनी चाहिए।
यदि कर्म प्रधान देश है तो सारे व्यापारी,कास्तकार,स्वर्णकार,मूर्तिकार,लौहकार,काष्ठकार,इत्यादि अपने नाम के साथ अपने कर्म प्रधान वर्ण को नहीं लिखते बल्कि अपने जन्म प्रधान वर्ण को ही लिखते हैं ।गुण- कर्म ही आदर तथा उच्चता के मापदण्ड हैं गुण का ही सामाजिक सम्मान होना चाहिए, न कि जन्म का। शूद्र वर्ण का कोई व्यक्ति यदि अपनी योग्यता, विद्या, बुद्धि बढ़ा लेता है, तो उसका भी ब्राह्मण के समान आदर होना चाहिए परंतु ऐसा दिखाई नहीं पड़ता ।जन्म के कारण कोई बहिष्कार के योग्य नहीं हैं,
महाभारत में युधिष्ठिर और यक्ष के सम्वाद में कहा गया है-
''मनुष्य जन्म से ही ब्राह्मण नहीं बन जाता है, न वह वेदों के ज्ञान मात्र से ब्राह्मण बन जाता है बल्कि उच्च चरित्र से ही मनुष्य ब्राह्मण माना जाता है ।''
भक्त रैदाश को भी उच्च स्थान प्राप्त हुआ ।अतः कहना चाहूँगा की जाति कर्म के आधार पर होनी चाहिए न कि जन्म के आधार पर और उच्च समाज को इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि 'ब्राम्हण' कुल में पैदा हुआ पुत्र 'शूद्र' भी हो सकता है और 'अछूत शूद्र' कुल में पैदा हुआ व्यक्ति 'ब्राम्हण' हो सकता है।
रजनीश शर्मा मार्तण्ड
राष्ट्रीय सचिव
A.D.V.M.S
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