Monday, 23 November 2015

कश्मीर में लोहारों (विश्वकर्मा वंशज) का गौरवमयी इतिहास


       प्राप्त साक्ष्यों तथा कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी इतिहासकारों के लिए एक ऐसी ऐतिहासिक पुस्तक साबित हुई जिसके अनुसार यह ज्ञात हो सका की लोहारों (विश्वकर्मा वंशीय)का वंश भी शासन प्रभुता में आगे रहा है यह हिन्दू शासन कश्मीर राज्य मे सन 1003 से 1159 तक लगभग 150 सालों तक चला जो अंतिम हिन्दू शासन कहलाया।
       लोहार वंश जिसके संस्थापक रानी दिदृदा के भाई संग्रामराज थे संग्रामराज बड़े न्याय प्रिय उदारवादी राजा थे उनके साशन काल में प्रजा सुख-चैन से दिन व्ययतीत कर रही थी किसी भी प्रकार का अभाव व् विकार लोगों में नहीं था।उनके बाद राज सिंहासन अनंतराज को मिला जिन्होंने अपनी वीरता धीरता शौर्यता के बल पर अपने शासन काल में सामन्तों के विद्रोह को छिन्न-भिन्न कर के धराशायी कर दिया तथा अपने सासन क्षेत्र का विस्तार भी किया सासन सत्ता सुचारू रूप से कायम करने में लगभग सफल रहे  ।अनंतराज की धर्मपत्नी रानी सूर्यमति में कुशल रानी के गुण विद्यमान तो थे ही  साथ साथ कुशल राजनीतिज्ञ व् नेतृत्वकर्ता के गुण भी कूट कूट कर भरे थे। अनंतराज के शासन में उनकी धर्मपत्नी रानी सूर्यमती पूर्ण रूप से हस्तक्षेत व् सहयोग किया करती थी सभी अहम् मुद्दों पर बराबर विचार विमर्श करती थी तथा उनके द्वारा प्रतिपादित नियम व् कानून अकाट्य सिद्ध होते थे स्वयं राजा अनंतराज व् उनका मंत्रिमंडल भी रानी सूर्यमति द्वारा बनाये नियम कानून में कभी कोई कमी नहीं निकाल पाता था ज्यो का त्यों लागू कर दिया जाता था। अनन्तराज के पुत्र कलश थे जिन्होंने कुछ विशेष कार्य नहीं किये कुशल राजा व् नेतृत्व न होने के कारण शासन सत्ता कमजोर क्षीण होती गई जिससे अनंत राज द्वारा विस्तारित क्षेत्र व् राज्य कमजोर होता गया ।
      राजा कलश के पुत्र हर्षदेव महाविद्वान,प्रखर बुद्धि,दार्शनिक,कवि थे तथा उनमे कुशल राजा के गुण विद्यमान थे उनको कई विभिन्न भाषाओं एवं विद्याओं का भी ज्ञान था। हर्षदेव धीरे धीरे सासन सत्ता में इतने मुग्ध हो गए उन्हें प्रजा के दुःख सुख से मोह ख़त्म होता गया राज्य में अशांति व्याप्त हो गई भयानक अकाल पड़ गया किसानों साहूकारों से अत्यधिक कर वसूला जाने लगा कर या लगान न देने पर राजा के सैनिको द्वारा कई अलग अलग तरह से दंड का प्रावधान किया जाने लगा जिससे प्रजा आतंकित हो गई।राजा हर्षदेव के अत्याचारपूर्ण कार्यो से त्रस्त होकर उत्सल एवं सुस्सल नामक भाईयों ने राजा हर्ष देव के खिलाफ विद्रोह कर दिया अशान्ति,भुखमरी,दमन,अत्याचार के कारण शुरू हुए विद्रोह में लगभग 1101 ई. में राजा हर्षदेव तथा उनके पुत्र भोज की हत्या कर दी गयी।
       हर्षदेव को कश्मीर के 'नीरो' की संज्ञा भी दी गयी है।(नीरो --> रोम का अत्याचारी सासक था पुरे राज्य में आग लगी थी खुद खड़ा होकर सारंगी बजा रहा था कहा जाता है आग खुद नीरो ने लगवाई थी)
       राजतरंगिणी के लेखक कल्हण राजा हर्षदेव के आश्रित कवि थे और राजतरंगिणी एक निष्पक्ष और निर्भय ऐतिहासिक कृति है। स्वयं कल्हण ने राजतरंगिणी में कहा है कि एक सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को न्यायाधीश के समान राग-द्वेष-विनिर्मुक्त होना चाहिए, तभी उसकी प्रशंसा हो सकती है

श्लाध्य: स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता।
भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती॥ (राजतरंगिणी, १/७)

      इस लिए यह माना जा सकता है कि कल्हण द्वारा रागतरंगिनी में तत्कालीन राजाओं का जो भी वर्णन मिलता है वह किंचित मात्र भी विचलित करने वाला नहीं है।
       कल्हण जाति से ब्राह्मण था उसके पिता का नाम चम्पक था। चम्पक लोहार वंशीय राजा हर्ष के मन्त्री थे तथा कल्हण हर्ष का आश्रित कवि था। कल्याण मे राजातरिणी ग्रंथ की जब रचना की उस समय लोहार वंशीय राजा जयंसिह का शासन काल कश्मीर मे चल रहा था।
    लोहार वंश का अन्तिम शासक राजा जयसिंह (1128-1155 ई.) थे।उन्होंने अपने युद्ध कला कौशल से यूनानी मूल के यवनों को परास्त किया था तथा राज्य की सीमा विस्तार शुरू कर दिया। जयसिंह कश्मीर में हिन्दू वंश तथा लोहार वंश के अंतिम शासक के रूप में जाने जाते हैं जय सिंह राजतरंगिणी के आखिरी सासक हैं।इसके बाद  तुर्क शासकों का इतिहास प्राप्त होता है
      कश्मीर में अंतिम हिन्दू लोहार वंश के लगातार  आठ राजाऒ का वर्णन मिलता है जिनके नाम निम्नवत हैं
1-संग्रामराज
2-अनन्तदेव
3-कलशदेव
4-हर्षदेव
5-उच्छ्ल
6-सुस्सल
7-शिक्षाचर
8-जयसिंह आदि थे
       इन हिन्दू लोहार वंशीय (विश्वकर्मा वंशीय)राजाओं ने मिलकर लगभग157 वर्ष तक जम्मू- कश्मीर मे शासन किया।
रजनीश शर्मा "मार्तण्ड"
9412428656
9455502007

Saturday, 31 October 2015

वैदिक साहित्यों में वर्ण व्यस्था का सच



वर्ण व्यस्था और वैदिक साहित्य
   
वैदिक साहित्यों में जिस जाति/वर्ण की व्यवस्था की गयी है उसके के बारे में अक्सर लोग आरोप प्रत्यारोप किया करते हैं अर्थ का अनर्थ निकाला करते हैं
यहाँ पर हम जाति/वर्ण के बारे में चर्चा करेंगे और प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर लोगों में व्याप्त विभिन्न प्रकार के विकारों को मुक्त करने का प्रयास करेंगे।
 वर्ण व्यस्था -
     वैदिक साहित्य के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों में सम्पूर्ण समाज को विभक्त कर दिया गया था एवं उक्त चारों वर्णों को कार्यों के आधार पर विभाजित किया गया था ।क्यों की चारों वर्णों के प्रत्येक मनुष्य यदि अलग-अलग कार्य को करते हैं तो  सारे कार्य सुचारू रूप से संपन्न हो जाते है।अर्थात एक व्यक्ति एक प्रकार का कार्य पूरा मन लगाकर करता है, तो उसमें कुशलता और विशेषज्ञता मिल जाती है वरन बार- बार कार्य को बदलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता, और न ही कार्य सम्पूर्ण हो पाता ।
     अतः वेदों में चारों वर्णों के कर्मों का पृथक−पृथक वर्णन किया है-

''ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धाराय'' (यजुर्वेद ३८- १४)
अर्थात् ''हमारे हित के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को धारण करो ।''

''उस विराट पुरुष (ईश्वर) के ब्राह्मण मुख हैं, क्षत्रिय भुजाएँ हैं, वैश्य उरु हैं और शुद्र पैर हैं ।''
(यजुर्वेद ३१- ११)

कई बार मनुस्मृति पर भी लोग आक्षेप लगाया करते हैं

यहाँ मनुस्मृति में वर्ण भेद पर कहे गए वचनों को बतौर उदहारण प्रस्तुत करता हूँ।

शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।

अर्थात- गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन
जाता है और शूद्र ब्राह्मण। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं। (मनुस्मृति 10:65)


''विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठतम क्षत्रियाणं तु वीर्यतः ।''

अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से परंतु यहाँ किसी कुल जाती का वर्णन नहीं है (कर्म के अनुसार)


  उपर्युक्त व्यस्था कर्म के आधार पर आधारित थी अर्थात एक पिता की चार संताने ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र हो सकती थीं।जिसका उल्लेख "श्रीमदभगवतगीता" में इस प्रकार किया गया हैः-

''चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां गुणकर्मविभागशः ।''

अर्थात-मैंने गुण, कर्म के भेद से चारों वर्ण बनाये ।''

इस प्रकार गुण कर्म के अनुसार हमारे यहाँ वर्णों का विधान है ।
ब्राह्मण -जो अपनी विद्या, विवेक,और ज्ञान से समाज में व्याप्त  अज्ञान के अन्धकार को दूर करने का कार्य करे जिससे स्वच्छ समाज की स्थापना हो सके।

क्षत्रिय- जो कमजोरी दुर्बलता को दूर करे तथा स्वच्छ समाज की रक्षा कर सके ।

वैश्य- जो देश देशान्तर तक व्यापार करके राष्ट्र को सुदृढ़ बना सके ।

शूद्र - शूद्रों में भी दो वर्ण हैं।
1-छूत
2-अछूत
छूत शूद्र- जो अपनी जरूरतों को पूर्ण करने के लिए खेती,जानवर पालन,गृह उद्योग करने वाले आदि लोग।

अछूत शूद्र- कुछ लोग जो  कसाई, खटीक, चर्मकार (चमडा उद्योग) हरिजन, डोम (नाले कि सफाई करने वाले) इत्यादि को अछूत शूद्र में रखा गया ।

(इस प्रकार शिद्ध होता है वैदिक साहित्य में कर्म के आधार पर वर्ण भेद बनाया गया )

   हमारा राष्ट्र हमेसा से कर्म प्रधान रहा है वैदिक साहित्य में जाति वर्ण के विभाजन का मुख्य उद्देश्य  मुख्य रूप से इसलिए किया गया ताकि जो व्यक्ति जिस कार्य में निपुड़ हो वह वैसा ही कार्य करें, वैसी जाति में शामिल समझा जाये ।
     दिन पर्यन्त इस व्यस्था का अंत हो गया हमारे राष्ट्र में अनेक उपजातियां बन गयीं समाज संकुचित होता गया मानसिकता संकीर्ण होती गयी इस संकुचित दायरे के भीतर ही विवाह होने लगे फलतः भारतवर्ष  की सांस्कृतिक एकता नष्ट हो गई ।
     धीरे-धीरे कर्म प्रधान देश रूढ़वादित से घिरता गया और जन्म प्रधान सा हो गया हालाँकि  कहने के लिए आज भी कर्म प्रधान देश है लेकिन सत्यता यही है जो सबको स्वीकारनी चाहिए।
यदि कर्म प्रधान देश है तो सारे व्यापारी,कास्तकार,स्वर्णकार,मूर्तिकार,लौहकार,काष्ठकार,इत्यादि अपने नाम के साथ अपने कर्म प्रधान वर्ण को नहीं लिखते बल्कि अपने जन्म प्रधान वर्ण को ही लिखते हैं ।गुण- कर्म ही आदर तथा उच्चता के मापदण्ड हैं गुण का ही सामाजिक सम्मान होना चाहिए, न कि जन्म का। शूद्र वर्ण का कोई व्यक्ति यदि अपनी योग्यता, विद्या, बुद्धि बढ़ा लेता है, तो उसका भी ब्राह्मण के समान आदर होना चाहिए परंतु ऐसा दिखाई नहीं पड़ता ।जन्म के कारण कोई बहिष्कार के योग्य नहीं हैं,

 महाभारत में युधिष्ठिर और यक्ष के सम्वाद में कहा गया है-
''मनुष्य जन्म से ही ब्राह्मण नहीं बन जाता है, न वह वेदों के ज्ञान मात्र से ब्राह्मण बन जाता है बल्कि उच्च चरित्र से ही मनुष्य ब्राह्मण माना जाता है ।''
      भक्त रैदाश को भी उच्च स्थान प्राप्त हुआ ।अतः कहना चाहूँगा की जाति कर्म के आधार पर होनी चाहिए न कि जन्म के आधार पर और उच्च समाज को इस बात को स्वीकार लेना चाहिए कि 'ब्राम्हण' कुल में पैदा हुआ पुत्र 'शूद्र' भी हो सकता है और 'अछूत शूद्र' कुल में पैदा हुआ व्यक्ति 'ब्राम्हण' हो सकता है।

   रजनीश शर्मा मार्तण्ड
राष्ट्रीय सचिव
A.D.V.M.S